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क्या साहित्य रचना औरतो के बस का काम नहीं …???

priyanka
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नही नही ये मेरे स्वयं के विचार नही है ……….ये तो कल मैंने एक पत्रिका में charlotte bronte की एक किताब के बारे में पढ़ा वही लिखा हुआ था की ………”साहित्य रचना औरतो की आजीविका का साधन नही हो सकती और होना भी नही चाहिए अगर औरत अपने सामाजिक रूप से तय कर्तव्यों को ढंग से निभा रही हो तो उसे फुरसत ही नही मिलेगी की वह कुछ लिखे …” ये पढ़ते ही मेरे दिमाग में पहला विचार यही आया की ये लेखिका तो यूरोप की विक्टोरियन युग की लेखिका है तो इसका मतलब है की औरतो के साथ हर युग में हर देश में ही अन्याय होता आया है ….. और ये जान कर संतोष भी हुआ की हमें सिर्फ भारत को ही नही कोसना चाहिए ………..ये तो घर घर की कहानी है ………. लेकिन अगर ध्यान से इन वाक्यों को पढ़ा जाये तो मुझे तो कहीं न कहीं ये वाक्य सही दिखाई पड़ते है ……क्योंकि कुछ गिनी चुनी नामचीन लेखिकाओ को छोड़ दिया जाय तो इस लेखन विधा पर हमेशा से ही पुरुषो का ही वर्चस्व दिखाई पड़ता है ………….और हो भी क्यों न पुरुष ही है जो शादी हो जाने के बाद भी आराम से पूरी बेफिक्री के साथ एक कमरे में बंद होकर लिख जो सकते है ………….. और हाँ शादी न करने के लिए मना भी कर सकते है जब चाहे जिस समय वो शादी कर सकते है ………….. और हम बिचारी लडकिया सारी मर्यादाओं और संस्कारो की दुहाई देकर फटाफट ढंग का लड़का मिलते ही हमें निपटा दिया जाता है हम तो ये कह ही नही सकते की अभी शादी नही करनी तमाम सवाल खड़े हो जाते है …………… क्यों भई क्यों नही करनी माजरा क्या है कोई लड़का देख रखा है क्या, माँ बाप क्या पूरा मोहल्ला सकते में आ जाता है …………….बिचारी लड़की सोचती है की चुप चाप हाँ करने में ही भलाई है……..और फिर शादी के बाद तमाम उलझने ………..सास की ससुराल की पति की घर की …………….और उसके बाद बच्चे की ……………..वो कहाँ कमरे में बंद होके कुछ वक़्त खुद के साथ बिता पाती है उस बिचारी औरत के अन्दर जो लेखिका होती है वो धीरे धीरे दम तोड़ ही देती है ………….. ऐसा मै खुद के अनुभव से और आस-पड़ोस देख कर ही कह रही हूँ ……….. मै खुद जितना पहले लिख पाती थी उतना अब नही लिख पाती हूँ ……….इसमें दोष किसी और का नही खुद हमारा ही होता है हम लडकियों की परवरिश ही ऐसे की जाती है की हम खुद ही शादी होते ही सारे शौक और पसंद को भूल कर घर पति बच्चो में रम जाते है ………..और हम लडकियों ने खुद भी अपने घर और आस-पास यही देखा भी होता है तो हम वही करते है जो हमें सिखाया जाता है की सबसे पहले अपने घर अपने परिवार को रखो फिर अपने आपको ………….खैर इसमें कोई बुराई भी नही है क्योंकि हमें भगवान् ने इस तरह रचा होता है की जितनी अच्छी तरह से हम एक परिवार चला सकते है एक मकान को घर बना सकते है वैसे पुरुष नही कर सकते …………..और हम अपने इस कार्य को करने में इतना रम जाते है की हम अपनी ख़ुशी से अपने शौक को भूल जाते है ………….. और मुझे पता है की मेरी इस बात से सारा पुरुष वर्ग भी सहमत ही होगा ……. लेकिन क्या यह सत्य है कि सहित्य रचना औरतो के बस का काम नही ……….अगर मै स्वयं से इसका जवाब पूछु तो मुझे जवाब हाँ में ही मिलेगा……जब किसी कहानी या किसी विषय पर वो लिखना चाहती है तो कई ऐसे विषय जिन पर मन में विचार तो कई होते है पर उन्हें कलम के जरिये उतार नही पाती है वो झिझक जाती है और जो सम्पूर्ण बेबाकी से लिखती भी है उन्हें तरह तरह की विषम परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है तसलीमा नसरीन तो सबको याद ही होंगी , लेकिन पुरुष लेखको की स्तिथि इससे उलट है उन्हें प्रशंशा का पात्र समझा जाता है , खैर अगर मै अपना उदहारण लूँ तो मै तो समयाभाव को ही दोष दूंगी मेरी तरह कई लेखिकाए अपनी घर की जिम्मेदारियों को सबसे पहले और लेखन एवं अपने अन्य शौक को सबसे अंत में रखती है………….मेरे मन में कितने विचार घुमड़ते रहते है पर समयाभाव के कारण उन्हें कागज़ पर किसी रचना का आकार नही दे पाती जबकि शादी से पहले जब भी कोई विचार या ख्याल मन में आता था उसे फट से लिख लेती थी ………….. हो सकता है पुरुष वर्ग मेरे इस विचार से असहमत हो और वो कहे की हमें भी तो ऑफिस या व्यापार संभालना पड़ता है पर फिर भी पुरुष वर्ग चाहे जितना इस बात को अस्वीकार करे लेकिन ये तो है की वो अपने हर कार्य बड़े आराम से कर लेते है चाहे वो उनके शौक हो या दोस्तों के साथ समय बिताना हो या फिर कोई अन्य काम ……… मुझे ऐसा लगता है की लेखन ऐसा काम है जो शान्ति और सुकून चाहता है यदि हम कुछ लिखना चाहते है और हमें उसे पन्नो पर उतरने का समय ही न हो तो वो विचार मन में गुम हो जाता है और यदि उस विचार को उस वक़्त किसी रचना का आकार ना दो तो वो विचार व्यर्थ ही हो जाता है ……………..लेकिन फिर भी अपने आस पास अनीता देसाई , अरुंधती राय, झुम्पा लाहिरी, महाश्वेता देवी,सुभद्रा कुमारी , आदि कई नाम है जिन्होंने कमाल लिखा है और हमारे लिए उदाहरण भी रखा है की अगर मन में तीव्र इच्छा हो तो चाहे तमाम काम हो , राह में चाहे कितने रोड़े हो हर किसी को अपनों मंजील मिल ही जाती है ……………….और हम औरते यह भी दिखा देती है की घर बच्चे सबको संभालने के बावजूद हम समाज में अपनी उपस्तिथि भी दर्ज़ कर ही देते है ………………….हाँ ये है की हम महिला लेखिकाओ को गिनती चाहे कम हो और हमने किताबे चाहे कम छपवाई हो पर न जाने कितने घरो को सजाया संवारा और रोशन किया है हमने ……………..

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