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अगर रात न होती तो क्या होता
मुझे रात अच्छी लगती है
क्योंकि रात मुझे सच्ची लगती है
लो ! आज फिर रात हो गई
सपनो की बरसात हो गई
रात को ही ख्याल आते है
रात को ही सवाल आते है
ख्याल जो गुदगुदा जाते है
सवाल जो उलझा जाते है
मै सोचती हूँ रात न होती तो क्या होता
शायद किसी के मन में कोई सपना न होता
रात ही हमें सुझाती है कई अनजान रास्ते
वो रास्ते जो हमें मंजील तक पहुंचाते है
पर जाने क्यों हम ही गुम हो जाते है दिन के अँधेरे में
वो अँधेरा जो ले जाता है मंजिलो से दूर
कर देता है सपनो को चकनाचूर
पर फिर भी हम दिन में जीते है रात में सोते है
दिन में मिलते है “मै” से रात में मिलते है “हम” से
“हम” जो समेटे है सबको “मै” जो खड़ा हुआ है अकेला
दिन में हम बस भागते रहते है अपने पीछे “मै” के पीछे
“मै” ये कर लू “मै” ये पा लू
“मै” स्वार्थ में है पर “मै” यथार्थ में भी है
“मै” दिन में है रात में सो जाता है
रात में केवल “हम” होते है वहाँ हमारे साथ
टिमटिमाते तारे होते है
चमकता हुआ चाँद होता है
धीमी धीमी बहती हुई हवा होती है
पांवों को सहलाती ठंडी ज़मीन होती है
और गालो को थपकाती रात होती है …
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