एक दिन रजिया जी की रचना पढ़ते ही मन भाव-विभोर हो गया ………..उनकी लिखी पंक्तियों में वो अपने घर का रास्ता बयान कर रही थी और मुझे ऐसा लगा जैसे मै अपने बचपन में पहुँच गयी हूँ अपने गाँव पहुँच गयी हूँ ……………..मुझे हमेशा से ऐसा महसूस होता है की जिसने भी गाँव नहीं देखा उसने जीवन को करीब से नहीं देखा ……… पहले मै इस बात को कभी इतने दिल से महसूस नहीं करती थी पर आज दिल्ली जैसे महानगर की भागदौड़ वाली ज़िन्दगी में आकर इस बात को कहने को मजबूर हो गयी हूँ….. वो गाँव की सुकून भरी ज़िन्दगी ……उफ़ उन पलो को याद करते ही कितनी ख़ुशी मिल रही है ………डैडी की नौकरी की वजह से हमने मध्यप्रदेश के कई शहरो की सैर की है ……. और अब शादी के बाद दिल्ली और भी कई शहरो की …………लेकिन दिल में आज भी गाँव में बिताये हुए दिनों की याद ताज़ा है ………जैसे ही परीक्षा ख़त्म होती थी मई और जून दो महीने की छुट्टिया बिताने हम अपने गाँव पहुँच जाया करते थे …….उस वक्त डैडी के ऊपर बड़ा गुस्सा आया करता था की लोग गर्मी की छुट्टियों में कहीं बाहर किसी अच्छी जगह घुमने जाया करते है और डैडी छुट्टिया शुरू होते ही हमें गाँव छोड़ आया करते थे ………लेकिन अब लगता है की अच्छा ही था जो हम गाँव जाया करते थे ………. हमारे साथ साथ चाचा जी और उनके बच्चे, फुआ जी और उनके बच्चे सब लोग इक्कट्ठे हो जाया करते थे , सबके आ जाने से हम भाई बहनों की अच्छी खासी मंडली बन जाया करती थी …………और फिर हमारी धमाचौकड़ी शुरू हो जाया करती थी ……..फिर वो चाहे गर्मी की जलती हुई दोपहर ही क्यों न हो हर वक़्त बस खेलना घूमना ………..और खाना ………..क्या गर्मी क्या धुप कोई भी बात हमारे खेल कूद में अंकुश नहीं लगा पाती थी…हमारा गाँव का घर बहुत बड़ा है ………और उसका आँगन और भी बड़ा …..आँगन के बीच में छोटा सा मंदीर बना हुआ है और उसी मंदीर से सटा हुआ रातरानी का पेड़ ……….उस रातरानी की खुशबू आज भी मन में बसी हुई है ………उस वक़्त गाँव में न तो कूलर न ही ए. सी., रात को आँगन में एक लाइन से चारपाई लग जाती थी और वहीँ पर सारे लोग सोते थे मम्मी लोगो की चारपाई मंदिर के पीछे लगाई जाती थी बब्बा जी लोगो से परदे की वजह से …….. फिर रात के आठ बजते ही हम सारे बच्चे चारपाई में नानी (अपने डैडी की दादी को हम नानी कहते थे) को घेर लेते थे फिर वो हमें या तो कहानी सुनाया करती थी या फिर पहेलियाँ बूझा करती थी , कभी अपने जमाने की बाते भी बताने लगती थी ………और चाचाजी लोग आकर भूतो की कहानिया सुनाने लगते थे जिसे वो सत्य घटना बताया करते थे , जैसे की फलां आम के पेड़ में चुडेल है बगीचे के बरगद के पेड़ में चुडेल रहती है , वगैरह वगैरह ……..ये सब सुनते सुनते रात की बियारी( डिनर) का समय हो जाता था और फिर चिडियों की चहचाहाहट से नींद खुलती थी लेकिन फिर भी उठते नहीं थे जब तक दादी चिल्ला चिल्ला कर थक नहीं जाती थी ….फिर कुँए में जाकर मंजन होता था लाल दन्त मंजन ……..दादी लोग तो नीम की दातौन करती है जिसकी वजह से आज भी उनके दांत सही है और हमें हर छः महीने में दातो के डाक्टर के पास जाना पड़ता है…….उसके बाद हम लोग बतियाते हुए दुआरे(घर के बाहर) बैठे रहते थे , फिर कलेवा खाने के लिए बुलाया जाता था जिसमे अक्सर बटुए में बनी हुई खिचड़ी, होती थी वो भी इतनी स्वाद होती थी की बार बार लेकर खाते थे ……….और अब तो ये हाल है की किसी को खिचड़ी के लिए पूछो तो कहते है की खिचड़ी तो बीमारों का खाना है, कोई भला चंगा इंसान भी क्या उसे खाता है………और उसके बाद मंदिर के पीछे वाले दक्खिन घर में पहुँच जाते थे आम खाने……गाँव के घर में कई कमरों के नाम दिशाओं के हिसाब से बोले जाते थे जैसे दक्षिण दिशा में दो कमरे थे जिनमे अनाज वगैरह रखा जाता था उसे दक्खिन घर और एक पश्चिम घर था जिसमे मम्मा(दादी) घी, दूध,मट्ठा, अचार, और मिठाई वगैरह रखती थी पर उसमे जाने की मनाही थी वो ही निकाल के दे सकती थी किसी को भी इजाज़त नहीं थी उनके पश्चिम घर में जाने की……….इन कमरों के बारे में बताते बताते मुख्य बात तो रह गयी …आमो की बात …..उफ़ वो रसीले मीठे आम ….और सबसे बड़ी बात, कितने सारे आम कितने भी खाओ कोई गिनती नहीं, कोई चिंता नहीं….. हमारे घर के पीछे पूरा बगीचा ही आम का था दुसरे फलो के भी पेड़ थे पर सबसे ज्यादा आम के ही पेड़ थे……सुबह भी आम खाते थे फिर पूरी दोपहर आम खाते थे . ….एक बार में चार पांच आम तो खा ही लेते थे …..अब वो आम खाने में कहाँ मज़ा आता है एक तो इतने महंगे है आम ……और फिर कैसे भी करके खरीदो तो वो गाँव के आमो जैसा स्वाद उनमे कहाँ आता है …….और अमावट जिसे शहर की भाषा में आम पापड कहते है उसका स्वाद भी कहाँ दुकानों से ख़रीदे आम पापड़ में आता है ……… इन दुकानों की चका चौंध में दिखावे में हर चीज़ का स्वाद गुम होता जा रहा है……बस दिखाई देता है चमकते हुए कागजों में बंद सामान जिसमे सब कुछ बनावटी …स्वाद भी ………… हमने तो फिर भी कुछ असली चीजों का स्वाद चखा है ……लेकिन हमसे आगे आने वाली पीढ़ी तो पिज्जा बर्गर में ही गुम होकर रह जाएगी क्या उन्हें कभी हमारी देसी चीजों का स्वाद पता चल जाएगा ……….फिशर प्राइज़ के खिलोने क्या कभी अपने खुद के हाथो से बने मीट्टी के खिलोनो का मुकाबला कर पायेंगे …………जिस गाय के गोबर से हमारे गाँव के घरो को लिपा जाता था उसी गाय के गोबर को देखते ही आज की पीढ़ी मुह बना कर नाक बंद कर लेती है….. हम लोग बरगद के पेड़ की सबसे ऊँची डाल पर झूला बाँध कर झूलते थे, गाँव के तालाब के किनारे और खेतो में दौड़ दौड़ कर जो खेल खेला करते थे उन खेलो का, बंद कमरों में बैठ कर कम्पूटर के सामने खेले जाने वाले खेलो से क्या कोई मुकाबला है …….पर क्या इसमें आज की पीढ़ी की गलती है नहीं इसमें गलती तो हमारी है ……….उनकी छुट्टिया होते ही हम उन्हें समर कैंप में भेज देते है या फिर किसी हिल स्टेशन में घुमाने लेकर चले जाते है ……….क्योंकि अब हम खुद ही बिना सुविधाओं के नहीं रह पाते है ………..और गाँव में भला शहर जैसी सुविधाए कहाँ बस ये सोचकर गाँव जाने का प्रोग्राम बनाते ही नहीं …….जबकि गाँव जाकर हम वो सीख सकते है जो हमें कोई समर केम्प नहीं सीखा सकता ………….. सादगी, भोलापन , बड़ो का सम्मान, अपनों से प्यार, प्रकृति से लगाव ये सब हम वहाँ से सीख सकते है……….गाँव में बीताये हुए वो बचपन की यादे अभी भी मेरे ज़ेहन में यं ताज़ा है जैसे कल ही की बात हो ………चूल्हे में बने हुए खाने का स्वाद , वो कुँए का मीठा पानी सब कुछ मन में बसा हुआ है ……….. आज भी जब जगजीत सिंह की इस ग़ज़ल को सुनती हूँ तो आँखे नम हो जाती है …..“ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो, भले छिन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लुटा दो वो बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी……….कड़ी धुप में अपने घर से निकलना, वो चिड़िया वो बुलबुल वो तितली पकड़ना, वो गुडिया की शादी में लड़ना झगड़ना, वो झूलो से गिरना वो गिर कर संभलना, ना दनिया का ग़म था न रिश्तों का बंधन, बड़ी खूबसूरत थी वो जिंदगानी…….. सच बड़ी खूबसूरत थी वो जिंदगानी ……….. “
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