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दुखद आश्चर्य …कैसे कैसे विचार……

priyanka
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जागरण जंक्शन से दूर हुए इतने दिन हो गए है लकिन आज यहाँ कुछ ऐसा पढ़ा की विवश हो गयी कुछ लिखने के लिए वैसे दुरी से मेरा अभिप्राय यहाँ कुछ न लिखने से था लेकिन यहाँ पर उपस्तिथ मै हमेशा रही सबकी रचनाये पढती रही कुछ कवितायों ने मन को छु लिया कुछ रचनायो को पढ़कर नयी जानकारी मिली तो कुछ रचनायो ने आँखे खोली परन्तु कल अचानक एक रचना के शीर्षक को पढ़कर मन चौंक गया और उसे पढ़कर तो शब्द ही नहीं सूझ रहे है की क्या कहू कैसे कहू ………………दुःख निराशा वैसे ही हमारे जीवन में भरपूर है जीवन वैसे ही कई नकारात्मक विचारों और परेशानियों से भरा होता है और ऊपर से किसी की लेखनी से निकले ऐसे शब्द मन को झिंझोड़ देते है रोम रोम तड़प उठता है ………………………”माँ” ये शब्द अपने आप में इतनी गरिमा लिए हुए है की इसे कहने के पहले और न ही बाद में प्रशंशनीय या उपमा अलंकारो से सजे शब्दों की जरुरत ही नहीं है ……………….परन्तु हमारे देश में भी कुछ विदेशी बसते है जो है तो इसी मिटटी के परन्तु मन से विदेशी …..जिस तरह विदेशी इस देश की गरीबी, दुःख, बीमारी ,गन्दगी देखते है उसी तरह से ये कथित विदेशी लोग भी “माँ” का सिर्फ एक ही रूप देखते है ……….”माँ” जो वृद्ध है अशक्त है कमजोर है जो अपने लिए दो वक़्त की रोटी प्यार या स्नेह न दिए जाने पर अपने बेटे को उलाहना देती है तो उसे “माँ” से नर्स बना दिया जाता है और उसके कुछ मांगे जाने को उसका स्वार्थ कहा जाता है ये कहा जाता है की वह अपने लालन पालन का प्रतिदान मांग रही है और ऐसे कथित बुद्धिमान लोग अपनी बुद्धिमानी और समझदारी का परिचय देते हुए कहते है की ऐसी औरत “माँ” नहीं नर्स है क्योंकि अगर वो हमसे प्यार करती तो वो कतई ऐसा नहीं करती उसने हमें खिला पिला कर पढ़ा लिखा कर बड़ा कर दिया तो कौन सा बड़ा काम कर दिया वो तो कोई भी नर्स कर देती अरे हमें तो पता ही नहीं था की जब हम बड़े हो जायेंगे काबिल और समझदार हो जायेंगे तो वो हमसे अपना मेहनताना मांगेगी वो कहेगी तुम मुझे बुढ़ापे में संभालो ……अरे मै क्यों संभालू ये तो “माँ” नहीं है इसने मुझे निःस्वार्थ नहीं बड़ा किया है मुझे बड़ा करने के पीछे इसका कितना बड़ा स्वार्थ था ये मुझे अपने बुढ़ापे का सहारा बनाना चाहती थी ये तो नालायक है और क्योंकि ये नालायक है तो मेरी सारी गलतियों बुराई की वजह भी वही है इसलिए ही मै नालायक हूँ………यह है आज के युवा वर्ग की गर्वित सोच ………………….क्या कहू कैसे कहू ……………….मन द्रवित हो उठा है “माँ” ये सिर्फ एक शब्द नहीं पूरा जीवन है मेरे लिए…………….इस शब्द के साथ कोई नालायक जैसा अशब्द कैसे लिख सकता है और अपने इस विचार को सही कहने लिए तमाम तरह के कुतर्क भी है इतना ही नहीं कई संत और गुरुओ की कही हुई बाते भी बड़ी आसानी से जोड़ कर अपने विचार को सही कहने पर तुले हुए है………ये शब्द सिर्फ एक नारी प्रतीक शब्द नहीं है जो एक नारी होने या स्वयम माँ होने के कारण मै इतना व्यथित हूँ ………………..व्यथित हूँ इस विचार की सहमती में कई लोगो को सर हिलाते हुए देख कर ……………….. सबके विचार पढने के बाद ये भी समझ में आ गया है की इन्हें कुछ भी कहने या समझाने का फायदा भी नहीं………… भैंस के आगे बीन बजाय भैंस खड़ी पगुराए………….. विचारों की लेखन की स्वतंत्रता सबको है कोई रोक नहीं है पर स्वयम ही मनन करिए जो आप कह रहे है जो आप लिख रहे है उसका क्या आशय है क्या अभिप्राय है …………. यहीं पर अपने आप को रोकती हूँ क्योंकि इस शब्द के मायने समझाने के लिए शब्दकोश से कोई शब्द ही नहीं मिल रहे है ………………वैसे भी जिसका पेट भरा होता है वो भूख क्या होती है महसूस नहीं कर सकता है ………..आप सबको शुभ संध्या …………………..

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